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भारत बनाम वैश्विक महाशक्तियाँ: क्या हम अडानी-अंबानी के साथ अगली सुपरपावर बन सकते हैं?

भारत और वैश्विक शक्ति संघर्ष: आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता आत्मविश्वासी राष्ट्र लेखक: शुभांशु झा| 4thColumn.in पिछली सदी ने अमेरिका...

भारत और वैश्विक शक्ति संघर्ष: आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता आत्मविश्वासी राष्ट्र

लेखक: शुभांशु झा| 4thColumn.in

पिछली सदी ने अमेरिका को वैश्विक महाशक्ति के रूप में उभरते देखा — एक ऐसा राष्ट्र जिसने युद्ध, तकनीक और पूंजी के बल पर न केवल अपना प्रभुत्व स्थापित किया, बल्कि चुनौती देने वाले हर राष्ट्र को या तो झुकने पर मजबूर किया या तोड़ डाला। जापान पर परमाणु हमले, सोवियत संघ का विघटन, इराक और अफगानिस्तान पर हमले — यह सब इतिहास के पन्नों में दर्ज है। लेकिन आज की दुनिया बदल रही है। और इस बदलते भू-राजनीतिक क्षितिज पर भारत एक मजबूत, आत्मनिर्भर और स्थिर शक्ति के रूप में उभर रहा है।



भारत: विश्व मंच पर एक नया नेतृत्व

भारत आज सिर्फ एक बाजार नहीं, एक संभावना है — 140 करोड़ लोगों की आकांक्षाओं, नवाचार और परिश्रम से भरा हुआ देश, जो न केवल अपनी जरूरतें खुद पूरी करना चाहता है, बल्कि वैश्विक समस्याओं का समाधान भी बनना चाहता है।

‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसे अभियानों ने केवल नारे नहीं, बल्कि नीतियों का रूप लिया है। रक्षा, सेमीकंडक्टर्स, ग्रीन एनर्जी और डिजिटल इकोनॉमी में भारत ने जो छलांगें मारी हैं, वह किसी भी विकसित राष्ट्र के लिए ध्यान देने योग्य हैं। भारत आज दुनिया का सबसे तेज़ी से बढ़ता बड़ा अर्थतंत्र है — IMF और World Bank की रिपोर्टें इसकी पुष्टि करती हैं।

उद्योगपति: किसी भी राष्ट्र की रीढ़

यह बात समझना बेहद जरूरी है कि किसी भी देश की शक्ति केवल उसके नेताओं या सैनिकों में ही नहीं होती — उसकी असली ताकत उसके वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों और उद्यमियों में होती है। अमेरिका में एलन मस्क, जेफ बेजोस, वॉरेन बफे और लैरी पेज जैसे उद्योगपति केवल अमीर नहीं, बल्कि रणनीतिक नीति निर्धारण में भागीदार हैं।

भारत में रतन टाटा, अंबानी, अडानी, नारायणमूर्ति और किरण मजूमदार-शॉ जैसे नाम उसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं — जिनकी सफलता न केवल भारतीय प्रतिभा की पहचान है, बल्कि भारत की वैश्विक ताकत को दिशा देने वाली शक्ति की सदा सकारात्मक सहयोगी भी।

तकनीक और मीडिया की दोधारी तलवार

गूगल, ट्विटर, यूट्यूब, फेसबुक — यह सभी अमेरिका में पंजीकृत कंपनियां हैं। इनके नियंत्रण में सूचना का बहाव है, और सूचना ही आज की सबसे शक्तिशाली ‘हथियार’ है। जिस राष्ट्र की जनता को भ्रमित किया जा सके, उसे कमजोर करना आसान है।

भारत को इससे सतर्क रहना होगा। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हम हर आलोचना को “विदेशी साजिश” कहकर नकार दें। आलोचना लोकतंत्र की आत्मा है — लेकिन जब आलोचना तथ्यहीन, एजेंडा-प्रेरित या भारत की वैश्विक छवि को नुक़सान पहुँचाने वाली हो, तब उस पर सवाल उठाना ज़रूरी हो जाता है।

राजनीति और ‘मिश्रित सरकार’ की चाहत

अंतरराष्ट्रीय रणनीतिक संस्थाएं चाहती हैं कि भारत में ऐसी सरकार हो जो निर्णय न ले सके, जो हर कदम पर गठबंधन दबाव में हो — क्योंकि स्थिर सरकारें दीर्घकालीन परिवर्तन करती हैं, और वैश्विक संतुलन बदल देती हैं। 2014 के बाद से भारत की राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक नीतिगत दृढ़ता ने वैश्विक मंच पर भारत की साख को एक नई ऊँचाई दी है।

चुनौतियाँ: भीतर और बाहर

भारत की सबसे बड़ी ताकत उसकी युवा आबादी है — लेकिन यही उसकी सबसे बड़ी चुनौती भी है। अगर युवा दिशा से भटक जाएं, तो राष्ट्र कमजोर हो सकता है। चीन की तुलना भारत से कई बार होती है, लेकिन वहां न तो खुला लोकतंत्र है, न ही सोशल मीडिया की स्वतंत्रता — यही कारण है कि वहां बाहरी प्रोपेगेंडा मुश्किल है। भारत को अपनी खुली व्यवस्था को बचाते हुए, उसकी कमजोरी न बनने देना होगा।

भारत को क्या करना चाहिए?

  • मीडिया साक्षरता बढ़ाएं: हर वायरल संदेश को सत्य न मानें। सोचें, जाँचें, फिर प्रतिक्रिया दें।
  • देशी उद्योग को समर्थन दें: भारतीय ब्रांड्स को प्राथमिकता देना केवल भावनात्मक फैसला नहीं, रणनीतिक है।
  • सकारात्मक सोच अपनाएं: आलोचना करें, लेकिन समाधान के साथ।
  • राजनीतिक स्थिरता को महत्व दें: परिवर्तन जरूरी है, लेकिन देशहित सर्वोपरि हो।

निष्कर्ष: भारत को पहचानिए, जयचंदों को भी

भारत एक चौराहे पर खड़ा है — जहाँ से वह या तो एक तकनीकी, आर्थिक और वैचारिक महाशक्ति बन सकता है, या बाहरी और भीतरी विघटनकारी ताक़तों का शिकार। हमें तय करना है कि हम केवल सोशल मीडिया पोस्ट साझा करने वाले “देशभक्त” बनें या सोच, विवेक और ज्ञान से राष्ट्र निर्माण में भागीदार बनें।

अडानी-अंबानी जैसे नाम सिर्फ पूंजीपति नहीं, भारत की नई आर्थिक रीढ़ हैं। अगर हम इनके खिलाफ बिना तथ्यों के खड़े हो जाते हैं, तो हम केवल एक व्यक्ति नहीं, भारत के भविष्य की संभावनाओं को भी धक्का देते हैं।

समय आ गया है कि हम जयचंदों और चाणक्यों में फर्क करें — और भारत के भविष्य को बाहरी शक्तियों के हाथों नहीं, अपने विवेक के भरोसे तय करें।

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