[शुभांशु झा, ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया (29/05/2025)] महाराणा प्रताप का जीवन शौर्य, त्याग और स्वाभिमान की अमर कथा है, जिसे युगों-युगों तक ...
[शुभांशु झा, ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया (29/05/2025)]
महाराणा प्रताप का जीवन शौर्य, त्याग और स्वाभिमान की अमर कथा है, जिसे युगों-युगों तक स्मरण किया जाता रहेगा । ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया (9 मई 1540) को राणा उदय सिंह द्वितीय और महारानी जयवंता बाई के पुत्र के रूप में जन्मे प्रताप, मेवाड़ राजवंश के सिसोदिया वंश से संबंधित थे। वे बचपन से ही अत्यंत साहसी, सत्यनिष्ठ और स्वाभिमानी थे। यह वही मेवाड़ था जिसने पहले भी दिल्ली सल्तनत और मुगलों के सामने कभी घुटने नहीं टेके थे।
हल्दीघाटी का युद्ध (1576): केवल युद्ध नहीं, आत्मबल का परिचायक
18 जून 1576 को अरावली की पहाड़ियों में स्थित हल्दीघाटी में मेवाड़ और मुगलों के बीच ऐतिहासिक युद्ध हुआ। मुगल सेना का नेतृत्व राजा मानसिंह कर रहे थे, जबकि प्रताप के साथ उनके विश्वस्त सेनापति झाला मान, हकीम खान सूर, और भील प्रमुख पूंजा थे। इस युद्ध में महाराणा प्रताप ने मात्र 20,000 सैनिकों के साथ 80,000 की मुगल सेना को रोका।
युद्ध में चेतक घोड़े की भूमिका विशेष उल्लेखनीय है। जब प्रताप घायल हुए, चेतक उन्हें युद्धभूमि से दूर ले गया, परंतु एक नाले को पार कर गिर पड़ा। चेतक आज भी स्वामिभक्ति और वफादारी का प्रतीक है। हल्दीघाटी में चेतक स्मारक आज भी पर्यटकों और देशभक्तों के लिए प्रेरणा का स्थल है।
स्वतंत्रता के लिए आजीवन संघर्ष
हल्दीघाटी के बाद महाराणा प्रताप ने मेवाड़ का अधिकांश भाग पुनः प्राप्त कर लिया। वे कभी अकबर के दरबार में नहीं गए, जबकि उनके समकालीन अनेक राजपूत राजाओं ने मुगलों से संधि कर ली थी। उन्होंने 'गोगुन्दा', 'कुंभलगढ़' और 'देवगढ़' जैसे दुर्गों को फिर से अपने अधिकार में लिया।
इतिहासकारों के अनुसार, महाराणा प्रताप अंतिम समय तक 20 किलो का भाला, 80 किलो की कवच, और कुल मिलाकर लगभग 208 किलो का अस्त्र-शस्त्र धारण करते थे। यह उनकी शारीरिक क्षमता और युद्ध कौशल का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
प्रशासनिक कुशलता और जनकल्याण
संघर्षों के बीच भी महाराणा प्रताप ने प्रशासन को व्यवस्थित रखा। भीलों और आदिवासियों को सेना में स्थान देना उनके समावेशी दृष्टिकोण को दर्शाता है। उन्होंने 'भील सेना' का गठन कर उन्हें “भाई” का दर्जा दिया। भूमि सुधार, कर-व्यवस्था और ग्राम विकास के लिए भी उन्होंने कई योजनाएं प्रारंभ कीं।
अकबर के दरबार में उनके लिए यह प्रसिद्ध कथन प्रचलित हुआ था: “जब तक राणा प्रताप स्वतंत्र हैं, तब तक अकबर की भारत विजय अधूरी है।”
आज की दृष्टि से महाराणा प्रताप की प्रासंगिकता
आज जब भारत आत्मनिर्भरता, संप्रभुता और सांस्कृतिक अस्मिता की बात करता है, महाराणा प्रताप का आदर्श और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार अपने भाषणों में राणा प्रताप का स्मरण कर "स्वदेशी स्वाभिमान" और "राष्ट्रहित सर्वोपरि" की भावना को पुनः जागृत किया है।
2023 में राजस्थान सरकार द्वारा “महाराणा प्रताप राज्य वीरता पुरस्कार” की घोषणा की गई, जो हर वर्ष उन सैनिकों और आम नागरिकों को दिया जाएगा जिन्होंने देश और समाज के लिए असाधारण साहस दिखाया हो।
राजस्थान में महाराणा प्रताप से जुड़े सांस्कृतिक स्थल
- चित्तौड़गढ़ किला: जहां से मेवाड़ के स्वाभिमान की शुरुआत हुई।
- कुंभलगढ़ किला: महाराणा प्रताप का जन्मस्थल। यह भारत की सबसे लंबी दीवार (36 किमी) के लिए प्रसिद्ध है।
- प्रताप गौरव केंद्र (उदयपुर): एक भव्य संग्रहालय और लाइट एंड साउंड शो, जहां महाराणा के जीवन की झांकियां आधुनिक तकनीक से दर्शाई गई हैं।
- चावंड स्मारक: अंतिम समय तक संघर्षरत महाराणा प्रताप का समाधि स्थल।
नवीन पीढ़ी के लिए संदेश
महाराणा प्रताप का जीवन सिखाता है कि स्वाधीनता केवल भौगोलिक नहीं होती, वह विचारों, संस्कृति और आत्मबल का संगम है। आज जब युवा पीढ़ी राष्ट्रीय और वैश्विक चुनौतियों का सामना कर रही है, प्रताप जैसा अडिग संकल्प ही सच्चे नेतृत्व को जन्म देता है।
उनकी जयंती पर आइए हम यह प्रण लें— कि हम भी स्वाभिमान और कर्तव्य के मार्ग पर चलकर देश की सेवा करेंगे, जैसे एक योद्धा हर परिस्थिति में अपने झंडे को ऊँचा रखता है।
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