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झिरिया में जीवन: गरियाबंद के ग्रामीणों की सदियों पुरानी प्यास बुझाने की परंपरा"

  झिरिया में जीवन: गरियाबंद के ग्रामीणों की सदियों पुरानी प्यास बुझाने की परंपरा: गरियाबंद, छत्तीसगढ़ : तेल नदी की रेत में खामोशी से बहता जी...

 

झिरिया में जीवन: गरियाबंद के ग्रामीणों की सदियों पुरानी प्यास बुझाने की परंपरा:

गरियाबंद, छत्तीसगढ़ : तेल नदी की रेत में खामोशी से बहता जीवन—गरियाबंद जिले के देवभोग ब्लॉक में बसे 17 गांवों के लगभग 10 हजार लोग आज भी नदी में झिरिया (रेतीली खुदाई से बने छोटे जलस्रोत) खोदकर अपनी प्यास बुझाते हैं। आधुनिक जलसंसाधनों की कमी और वर्षों से चली आ रही परंपरा ने इस व्यवस्था को गांव की जीवनशैली का हिस्सा बना दिया है।


"पानी साफ और ठंडा मिलता है," कहते हैं ग्राम माटासी के बुजुर्ग लक्ष्मण पटेल।

"अगर यह जलस्त्रोत हमें शुद्ध जल दे रहा है, तो हम नदी छोड़कर कहीं क्यों जाएं?"

झिरिया, जहां नदी के किनारे कुछ ही इंच खोदने पर मीठा और स्वच्छ जल उभर आता है, इन गांवों की जलकुंड परंपरा का जीवंत उदाहरण है। यह न सिर्फ इन लोगों की जीवटता दर्शाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि किस प्रकार प्राकृतिक संसाधनों के साथ संतुलन बनाकर जीवन जिया जा सकता है।


सरकारी योजनाएं नाकाफी:

हालांकि जल जीवन मिशन जैसी योजनाएं इन क्षेत्रों तक पहुंचने का दावा करती हैं, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि अधिकतर गांवों में आज भी नल और पाइपलाइन जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं पहुंची हैं। स्थानीय निवासी बताते हैं कि गर्मियों में जब झिरिया सूखने लगती हैं, तो घंटों रेत खोदकर पानी निकालना पड़ता है।


एक परंपरा, एक प्रश्न:

जहां एक ओर यह परंपरा ग्रामीण संस्कृति की मिसाल है, वहीं यह इस बात का भी प्रतीक है कि जलसंकट और बुनियादी सुविधाओं की कमी अब भी बड़ी चुनौती बनी हुई है। क्या यह समय नहीं आ गया है जब परंपरा को सम्मान देते हुए उन्हें सुविधा से जोड़ा जाए?



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