संपादकीय जलवायु संकट: विकास की चमक में छिपता भविष्य — पर्यावरण नहीं बचेगा तो विकास की परिभाषा भी नहीं बच...
हम भारतीय आज जिस आर्थिक और अवसंरचनात्मक प्रगति पर गर्व कर रहे हैं, उसी प्रगति की छाया में जलवायु परिवर्तन, संसाधन क्षरण और पर्यावरणीय असंतुलन का संकट गहराता जा रहा है। भीषण गर्मी, अनियमित मानसून, सूखा, बाढ़ और गिरता भूजल स्तर—ये अब भविष्य की चेतावनियाँ नहीं, बल्कि वर्तमान की कठोर वास्तविकताएँ हैं।
सवाल यह नहीं है कि भारत कितना विकास कर रहा है; समस्या यह है कि विकास की यह गति प्रकृति के साथ संवाद के बजाय उस पर प्रभुत्व स्थापित करने की मानसिकता से संचालित हो रही है।
हीटवेव अब समाचार नहीं रहीं, बल्कि गर्मियों का स्थायी चेहरा बन चुकी हैं। किसान असमय बारिश और सूखे के बीच फँसे हैं, शहर पानी और हवा—दोनों के संकट से जूझ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन का सबसे क्रूर प्रभाव उन वर्गों पर पड़ रहा है जिनका इसमें योगदान सबसे कम है।
भूजल का अंधाधुंध दोहन, नदियों का प्रदूषण और जंगलों का संकुचन यह संकेत देता है कि हम प्राकृतिक संसाधनों को अब भी असीम मानकर चल रहे हैं। यह दृष्टिकोण न केवल अवैज्ञानिक है, बल्कि अनैतिक भी।
पर्यावरण संरक्षण को अकसर विकास-विरोधी कहकर खारिज कर दिया जाता है। लेकिन सच्चाई यह है कि बिना पर्यावरणीय संतुलन के कोई भी विकास टिकाऊ नहीं हो सकता। GDP के आँकड़े जीवन की गुणवत्ता का विकल्प नहीं हो सकते।
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हरित प्रतिबद्धताएँ और देश के भीतर ढीला क्रियान्वयन— यह विरोधाभास भारत की पर्यावरण नीति की सबसे बड़ी कमजोरी है। मीडिया और नागरिक समाज का दायित्व है कि पर्यावरण को हाशिए से उठाकर राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में लाया जाए।
आज लिए गए निर्णय आने वाली पीढ़ियों के लिए जीवन की शर्तें तय करेंगे। यह समय विकास और पर्यावरण के बीच चुनाव का नहीं, बल्कि अल्पकालिक लाभ और दीर्घकालिक अस्तित्व के बीच निर्णय का है।



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