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अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवक दिवस: भारत में इतिहास और छत्तीसगढ़ में इसकी प्रासंगिकता — एक मानवशास्त्री की दृष्टि से

अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवक दिवस: भारत में इतिहास और छत्तीसगढ़ में इसकी प्रासंगिकता — एक मानवशास्त्री की दृष्टि से हर वर्ष 5 दिसंबर क...

अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवक दिवस: भारत में इतिहास और छत्तीसगढ़ में इसकी प्रासंगिकता — एक मानवशास्त्री की दृष्टि से

हर वर्ष 5 दिसंबर को मनाया जाने वाला अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवक दिवस केवल एक वैश्विक औपचारिकता नहीं, बल्कि मानव समाजों में निहित सहभागिता, सहयोग और सामुदायिक उत्तरदायित्व की उस परंपरा का आधुनिक उत्सव है, जो सभ्यता की शुरुआत से ही मानव जीवन का आधार रही है। स्वयंसेवा किसी भी समाज की सामाजिक शक्ति, सांस्कृतिक मूल्यों और नैतिक आधार का दर्पण है। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इसे वर्ष 1985 में स्थापित किया गया था, ताकि दुनिया भर में शांति, विकास और मानवीय सहयोग में योगदान देने वाले स्वयंसेवकों के प्रयासों का सम्मान किया जा सके।

भारत में स्वयंसेवा की ऐतिहासिक जड़ें

भारत में स्वयंसेवा की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। मानवशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो भारतीय समाज में “सेवा” केवल एक आचरण नहीं, बल्कि जीवन-दृष्टि का हिस्सा रही है। दान, परमार्थ, सामूहिक श्रमदान, अतिथि-सत्कार, भिक्षु-परंपरा, भक्ति आंदोलन का सामाजिक उत्थान — ये सभी हमारे सांस्कृतिक इतिहास में स्वयंसेवी भाव के उदाहरण हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान स्वयंसेवा ने एक नया रूप लिया। गांधीजी के ‘सर्वोदय’, ‘नैतिक नेतृत्व’ और ‘सामुदायिक साझेदारी’ के विचारों ने सेवा को सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनाया। आज आधुनिक भारत में आपदा प्रबंधन, रक्तदान, बाल एवं महिला कल्याण, पर्यावरण संरक्षण से लेकर स्वास्थ्य एवं शिक्षा तक — स्वयंसेवा विकास यात्रा का अभिन्न घटक बन चुका है।

छत्तीसगढ़ और बस्तर: सामुदायिक जीवन में स्वयंसेवा की जीवंत परंपरा

छत्तीसगढ़, विशेषकर इसकी जनजातीय और ग्रामीण संरचना, स्वयंसेवा की जड़ों को और स्पष्ट करती है। गोंड, बैगा, मुरिया, हल्बा, धुरवा और अन्य अनेक आदिवासी समुदायों में परस्पर श्रमदान, सामूहिक निर्णय, पर्व-उत्सवों में सामूहिक योगदान और संकट में तुरंत सहायता करने की परंपराएँ सदियों से जीवित हैं। बस्तर क्षेत्र में “घोटुल” जैसी संस्थाएँ, युवाओं में अनुशासन, समाज-सेवा और सामूहिक जिम्मेदारी का बोध कराती रही हैं। किसी परिवार में विपत्ति आने पर पूरा गाँव श्रमदान करता है; खेत बोने से लेकर घर बनाने तक में सहयोग को नैतिक दायित्व माना जाता है। यह स्वयंसेवा की सबसे शुद्ध सामाजिक संरचना है।

आधुनिक स्वयंसेवा और सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ: छत्तीसगढ़ का मॉडल

समय के साथ सरकारें और संस्थाएँ स्वयंसेवा की भावना को योजनाओं के माध्यम से आगे बढ़ा रही हैं। छत्तीसगढ़ में इस दिशा में कुछ उल्लेखनीय पहलें सामने आई हैं—

1. महतारी दुलार योजना
कोविड-19 के दौरान अनाथ या असहाय हुए बच्चों के लिए यह योजना एक सुरक्षा-कवच की तरह स्थापित की गई। राज्य सरकार इन बच्चों को निःशुल्क शिक्षा, स्कूल-प्रवेश में प्राथमिकता और कक्षा 1–8 के लिए ₹500 तथा 9–12वीं के लिए ₹1000 मासिक छात्रवृत्ति प्रदान करती है। यह योजना केवल आर्थिक सहयोग नहीं, बल्कि एक मानवीय संबल है, जो नैतिक रूप से समाज की सामूहिक जिम्मेदारी को राज्य-व्यवस्था के माध्यम से संस्थागत रूप देता है।

2. महतारी वंदन योजना
महिलाओं के आर्थिक-सामाजिक सशक्तिकरण हेतु आरंभ की गई इस योजना के तहत पात्र महिलाओं को ₹1000 मासिक सहायता उपलब्ध कराई जाती है। बस्तर के कई दुर्गम और पूर्व में असुरक्षित क्षेत्रों में रहने वाली महिलाएँ पहली बार किसी सरकारी प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता से जुड़ी हैं। यह केवल वित्तीय समावेशन नहीं, बल्कि उनकी सामाजिक भागीदारी और सम्मान के नए अध्याय का आरंभ है। इन योजनाओं में दिखने वाली सुरक्षा, संवेदनशीलता और सहायता की भावना वह आधुनिक रूप है, जहाँ स्वयंसेवा भावना और शासन—दोनों मिलकर सामुदायिक विकास को गति देते हैं।

बस्तर की पृष्ठभूमि में स्वयंसेवा की विशेष भूमिका

बस्तर, जहाँ दशकों तक सामाजिक चुनौतियाँ, भौगोलिक कठिनाइयाँ और विकास-अभाव जैसी स्थितियाँ बनी रहीं, आज स्वयंसेवा आधारित समुदायों और योजनाओं की सहायता से सकारात्मक परिवर्तन देख रहा है। युवाओं द्वारा शिक्षा में सहयोग, महिलाओं द्वारा सामुदायिक समूहों में सक्रिय भागीदारी, ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य जागरूकता, जंगलों की आग रोकने में सामूहिक प्रयास — ये सभी इस बात का प्रमाण हैं कि बस्तर अपने सामाजिक ताने-बाने में ‘सहयोग’ को जीवित रखे हुए है। यह मानवशास्त्रीय दृष्टि से विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि किसी भी समाज की उन्नति केवल संसाधनों से नहीं, बल्कि समुदाय की “साझेदारी की क्षमता” से मापी जाती है।

मानवशास्त्रीय निष्कर्ष

मानवशास्त्रीय दृष्टि से स्वयंसेवा— • परंपरा और आधुनिकता का मिलन है। • सामाजिक पूँजी (Social Capital) का निर्माण करता है। • समुदाय, राज्य और व्यक्तिगत नैतिक जिम्मेदारी को जोड़ता है। • बस्तर और छत्तीसगढ़ जैसे क्षेत्रों में सामाजिक स्थिरता और समग्र विकास का आधार बनता है। अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवक दिवस हमें यह याद दिलाता है कि समाज का विकास केवल नीतियों से नहीं, बल्कि मानवता, संवेदना और सहभागिता से होता है। भारत और छत्तीसगढ़ की परंपराएँ यह सिद्ध करती हैं कि स्वयंसेवा कोई नया विचार नहीं है, बल्कि हमारी सभ्यता की प्राचीन धरोहर है — जिसे आधुनिक समाज फिर से पहचान रहा है।

लेखक की फोटो

डॉ. रूपेन्द्र कवि

मानवविज्ञानी, साहित्यकार, परोपकारी

(उप सचिव, राज्यपाल, छत्तीसगढ़)

घोषणा (Disclaimer):
यह लेख लेखक के व्यक्तिगत विचार, अनुभव और अध्ययन पर आधारित है। इसका किसी भी प्रकार से राज्यपाल सचिवालय, किसी सरकारी संस्था या किसी आधिकारिक नीति से कोई संबंध नहीं है। यह पूर्णतः शैक्षणिक एवं वैचारिक लेखन है।

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