शिक्षा, शांति और संस्कृति के अग्रदूत: 101 वर्षीय बसंत लाल झा की दृष्टि से भारत जगदलपुर, जुलाई 2025: जब आज के भारत में डिजिटल क्...
जगदलपुर, जुलाई 2025: जब आज के भारत में डिजिटल क्रांति, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और चंद्रयान की चर्चा है, वहीं एक 101 वर्षीय वयोवृद्ध शिक्षाविद आज भी देश की आत्मा — "संस्कार, शिक्षा और वैश्विक सद्भावना" — की हर संभव अलख जगाने में समर्पित हैं। श्री बसंत लाल झा, जिन्होंने बस्तर जैसे पिछड़े क्षेत्र में शिक्षा का दीप जलाया, आज भी भारत की स्थिति पर स्पष्ट, मर्मस्पर्शी और अनुभवसिद्ध दृष्टिकोण रखते हैं।
बस्तर में शिक्षा का बीज
सन् 1950-60 के दशकों में जब बस्तर जंगलों और जनजातीय समाज की पहुंच तक ही सीमित था, तब श्री झा ने दो महाविद्यालयों की स्थापना कर शिक्षा की ऐसी मशाल जलाई, जिसने आने वाले कई दशकों तक हजारों छात्रों के जीवन को दिशा दी। वे न केवल प्राचार्य और संस्थापक रहे, बल्कि गुरु, मार्गदर्शक और विचारक की भूमिका भी निभाते रहे।
रामकथा शिरोमणि: महाकाव्य का अनूठा काव्यानुवाद
उनके साहित्यिक योगदान की बात की जाए तो महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण का हिंदी काव्यानुवाद — जो लगभग 1300 पृष्ठों में विस्तारित है — उन्हें "रामकथा शिरोमणि" की प्रतिष्ठा प्रदान करता है। यह ग्रंथ न केवल साहित्यिक, बल्कि दार्शनिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
विश्व मंच पर भारत की उपस्थिति
झा जी मात्र बस्तर तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने 60 वर्ष पूर्व बेल्जियम, इंग्लैंड, इंडोनेशिया जैसे देशों में पर्यावरण, विश्व शांति और भारतीय दर्शन पर भारत का प्रतिनिधित्व किया। वे उस युग में वैश्विक मंच पर भारत की आवाज बने, जब देश की अंतरराष्ट्रीय पहचान आकार ले रही थी।
भारत की वर्तमान स्थिति पर उनकी दृष्टि
"भारत ने विज्ञान, तकनीक और वैश्विक संबंधों में जितनी उन्नति की है, उतनी ही गिरावट हमने अपनी मूल सांस्कृतिक शिक्षा और नैतिक मूल्यों में देखी है। अब भी समय है, जब हम 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के भाव को विद्यालयों से लेकर संसद तक पुनः जीवंत करें।"
— श्री बसंत लाल झा
उनकी दृष्टि में वर्तमान भारत आर्थिक दृष्टि से सशक्त, तकनीकी दृष्टि से उन्नत, परंतु नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहा है। शिक्षा में मूल्यों की पुनर्स्थापना, भाषा की गरिमा और आत्मनिर्भरता के साथ सहिष्णुता का समावेश — ये आज की सबसे बड़ी आवश्यकताएं हैं, ऐसा वे मानते हैं।
कवि, विचारक, शिक्षक और राष्ट्रदूत
श्री झा न केवल एक शिक्षाविद रहे, बल्कि उन्होंने अपने जीवन को एक जीवंत तपस्या बना दिया — शिक्षा, संस्कृति, राष्ट्रसेवा और अध्यात्म के लिए। उनकी साधना आज की युवा पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा है — विशेषकर ऐसे समय में जब आदर्शों का स्थान ‘वायरल’ होने की होड़ ने ले लिया है।
समापन विचार
आज जब शिक्षा को व्यवसाय और राष्ट्रवाद को नारे तक सीमित किया जा रहा है, बसंत लाल झा जैसे व्यक्तित्व हमें याद दिलाते हैं कि "देश बनाने के लिए विश्वविद्यालय, संस्कार और विश्व दृष्टि" की आवश्यकता होती है।
उनके जीवन से प्रेरणा लेकर बस्तर जैसे क्षेत्रों में नई पीढ़ी को शिक्षित, सशक्त और संवेदनशील बनाने का कार्य एक सतत प्रयास बनना चाहिए — यही उनके जीवन और कर्म का सर्वोत्तम सम्मान होगा।
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