बीजापुर : "मेहनत करे मुर्गी, अंडा खाए फकीर" – इस कहावत को चरितार्थ करता एक मामला बीजापुर ज़िले के भोपालपटनम विकासखंड के अन्नारम ग...
बीजापुर : "मेहनत करे मुर्गी, अंडा खाए फकीर" – इस कहावत को चरितार्थ करता एक मामला बीजापुर ज़िले के भोपालपटनम विकासखंड के अन्नारम गाँव से सामने आया है, जहाँ एक बंद पड़ी प्राथमिक शाला को दोबारा शुरू कराने की मेहनत तो स्थानीय जनप्रतिनिधियों और ग्रामीणों ने की, परंतु उसके उद्घाटन कार्यक्रम से उन्हें दूर रखा गया।
जिला पंचायत उपाध्यक्ष पेरे फुलैया ने प्रशासन पर गंभीर आरोप लगाए हैं कि उन्हें और अन्य जनप्रतिनिधियों को विद्यालय पुनः संचालन के आयोजन में आमंत्रित नहीं किया गया, जबकि उन्हीं के नेतृत्व में इस बंद शाला को पुनः खोलने की मांग शुरू हुई थी। फुलैया ने कहा कि उन्होंने वल्वा चलपतराव, वासम कमला और ग्रामीणों के साथ मिलकर बच्चों के नामांकन की व्यवस्था की, सर्वे कराया, पंचायत से प्रस्ताव पारित कराया और खंड शिक्षा अधिकारी को अवगत भी करवाया।
📚 स्कूल खुला, पर बुलावा नहीं आया :
दिनांक 26 जुलाई को प्राथमिक शाला अन्नारम में नव प्रवेशी बच्चों का स्वागत किया गया। इस कार्यक्रम में एपीसी जाकिर खान, खंड शिक्षा अधिकारी नागेंद्र पड़िशाला, सहायक खंड शिक्षा अधिकारी एटला श्रीनिवास, और खंड स्रोत समन्वयक समेत अन्य अधिकारी मौजूद रहे। बच्चों को तिलक लगाकर, पाठ्य सामग्री दी गई – लेकिन जिला पंचायत उपाध्यक्ष समेत किसी भी स्थानीय निर्वाचित जनप्रतिनिधि को नहीं बुलाया गया।
❗"यह केवल उपेक्षा नहीं, अपमान है" – पेरे फुलैया
पेरे फुलैया ने तीखी प्रतिक्रिया में कहा –
> "मैं न केवल जिला पंचायत उपाध्यक्ष हूं, बल्कि शिक्षा समिति का सभापति भी हूं। फिर भी मुझे इस कार्यक्रम से जानबूझकर दूर रखा गया। यह आदिवासी जनप्रतिनिधियों की खुली उपेक्षा है।"
उन्होंने एपीसी जाकिर खान पर आरोप लगाया कि यह पहली बार नहीं है।
> "वो लगातार आदिवासी जनप्रतिनिधियों की अनदेखी करते हैं। उनके व्यवहार में अपमान की झलक होती है। मैं मांग करता हूं कि उन्हें तत्काल हटाया जाए।"
🧾 सवाल और मांगें :
फुलैया ने यह भी पूछा कि जब युक्तियुक्तकरण में अन्य शिक्षक बदले जा सकते हैं तो जाकिर खान को क्यों नहीं हटाया गया? उन्होंने कहा कि अब यह मामला सिर्फ उनका नहीं बल्कि पूरे सर्व आदिवासी समाज का है और वे इसे समाज के समक्ष रखेंगे।
यह मामला सिर्फ एक स्कूल के उद्घाटन का नहीं, बल्कि जनप्रतिनिधियों और प्रशासन के बीच समन्वय की कमी, सम्मान और सहभागिता के सवाल को सामने लाता है। जहां सरकार आदिवासी समाज की सहभागिता की बात करती है, वहीं जमीन पर इस तरह की उपेक्षा कई सवाल खड़े करती है।
> क्या मेहनत करने वालों को हक़ भी मिलेगा, या बस श्रेय की तस्वीरों में उनका नाम गुम ही रहेगा?
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