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बस्तर में वृंदावन : डॉ. रूपेंद्र कवि

🌿 बस्तर में वृंदावन 🌧️ बुदरू-बुदरी हँसते हैं जैसे समय थम गया हो, पलाश के पेड़ों तले जीवन कुछ कह गया हो। ...

🌿 बस्तर में वृंदावन 🌧️


बुदरू-बुदरी हँसते हैं जैसे समय थम गया हो,
पलाश के पेड़ों तले जीवन कुछ कह गया हो।
उनकी झुकी पीठों में भी लचक है, संगीत है,
हर मुस्कान में बस एक अघोषित प्रीत है।

मैं और मोनिका — बस्तर के कुहासे में राधा-रस,
हर झील, हर पत्थर पर प्रेम की कोई कथा अभिलिखित।
न चूड़ियाँ खनकती हैं यहाँ, न बाँसुरी की धुन,
फिर भी वृंदावन बस गया है सल्फी की सुगंध में पूर्ण।

माटी जब भी भीगती है पहली बरखा के साथ,
मेरे मन में राधा नाम के अक्षर होते हैं प्रगाढ़।
बस्तर की मिट्टी — कोई साधारण धूल नहीं,
यहाँ हर कण में बसी है किसी संत की रहगुज़र सही।

घने जंगल, सावन की प्यास से उमड़े झरने,
चित्रकोट, तीरथगढ़ — जैसे प्रेम के बहते वर्णन।
इनकी हर बूँद मेरे हृदय में चूमती है कुछ बीता हुआ,
मानव-सभ्यता का कोई भूला हुआ भाव, संजोया हुआ।

मैं यहीं रहता हूँ — इसी मिट्टी में, इसी गंध में,
बस्तर मेरे भीतर है, और मैं बस्तर के छंद में।
राधा रानी का भक्त, पर छंदों में विज्ञान का मन,
कविता और संस्कृति — मेरे दोनों ही हैं आराध्य धन।

यह जो धरती है — नितांत लोक, नितांत प्रेम,
यहाँ वृंदावन है, बस्तर के हरेपन में एक मौन नेम।
शब्द मेरी प्रयोगशाला नहीं, मेरी साधना हैं,
मनुष्य और मिट्टी के मध्य की पावन भावना हैं।

— डॉ. रूपेन्द्र ‘कवि’



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