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डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी: राष्ट्रवादी चिंतन और बलिदान के प्रतीक - शुभांशु झा

शुभांशु झा | जून 23, 2025 23 जून, 1953—यह तारीख भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहास में एक शोकाकुल किंतु गर्वपूर्ण अध्याय के रूप में दर्ज है।...

शुभांशु झा | जून 23, 2025

23 जून, 1953—यह तारीख भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहास में एक शोकाकुल किंतु गर्वपूर्ण अध्याय के रूप में दर्ज है। इस दिन देश ने एक ऐसे यशस्वी नेता को खोया, जिसने भारत की एकता, अखंडता और राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानते हुए प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। वह थे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जिनके विचार, साहस और बलिदान आज भी भारत के राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन में प्रेरणा का स्रोत हैं।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई, 1901 को बंगाल के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी, प्रसिद्ध शिक्षाविद् और कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति थे। डॉ. मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातक किया और फिर कानून में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। उन्होंने 1934 में इंग्लैंड से बैरिस्टर की डिग्री ली।

शिक्षा और प्रशासन में योगदान

डॉ. मुखर्जी मात्र 33 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। वे भारतीय शिक्षा व्यवस्था में राष्ट्रवादी मूल्यों के पक्षधर थे। उन्होंने भारतीय भाषाओं, सांस्कृतिक चेतना और स्वदेशी सोच को उच्च शिक्षा में स्थान दिलाने के लिए अनेक प्रयास किए।

राजनीतिक जीवन: कांग्रेस से जनसंघ तक

1939 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और 1941 में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा से जुड़े, जहां वे 1944 में अध्यक्ष बने। 1947 में जब पंडित नेहरू की अंतरिम सरकार बनी, तो उन्हें उद्योग और आपूर्ति मंत्री बनाया गया। किंतु, नेहरू-लियाकत समझौते से असहमति जताते हुए उन्होंने 1950 में मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया।

उनकी दूरदर्शिता का परिणाम था कि उन्होंने 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की, जो आज के भारतीय जनता पार्टी का मूल आधार बना। उनका नारा था:

"एक देश में दो प्रधान, दो विधान और दो निशान नहीं चलेंगे।"

कश्मीर मुद्दे पर ऐतिहासिक संघर्ष

1950 के दशक में जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान पूरी तरह लागू नहीं होता था। वहाँ अलग झंडा, अलग प्रधानमंत्री और अलग कानून व्यवस्था थी। डॉ. मुखर्जी ने इसका पुरजोर विरोध किया और धारा 370 को अस्थायी मानते हुए उसकी समाप्ति की मांग की।

1953 में उन्होंने कश्मीर में प्रवेश करने की घोषणा की—बिना परमिट के। 11 मई को उन्हें जम्मू सीमा पर गिरफ्तार किया गया और श्रीनगर की जेल में रखा गया। वहीं 23 जून 1953 को रहस्यमयी परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई।

उनकी माता योगमाया देवी ने प्रधानमंत्री नेहरू को पत्र में लिखा:

"मेरे बेटे ने कश्मीर की एकता के लिए प्राण दिए, अब यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है कि भारत अखंड रहे।"

डॉ. मुखर्जी की विचारधारा और विरासत

उनका चिंतन भारतीय संस्कृति, राष्ट्रवाद, और एकात्म मानव दर्शन से प्रेरित था। उन्होंने जीवनभर राष्ट्रीय एकता, स्वदेशी शिक्षा, और संवैधानिक समानता की वकालत की।

आज भारतीय राजनीति में जनसंघ से भाजपा तक, उनकी विचारधारा और सिद्धांत स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं। 2019 में जब भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाया, तो यह डॉ. मुखर्जी के अधूरे सपने को पूर्ण करने जैसा था।

एक प्रेरणादायक बलिदान

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी केवल एक राजनेता नहीं थे, वे विचारशीलता, साहस और संकल्प के प्रतीक थे। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि सच्चे राष्ट्रभक्त सत्ता नहीं, सिद्धांतों के लिए जीते हैं।

आज के भारत को जब कभी दिशाहीनता का अनुभव होता है, तब एक सच्चे राष्ट्रभक्त डॉ. मुखर्जी की जीवनी मार्गदर्शन करती है—

"राष्ट्र के हित में किया गया कोई भी बलिदान व्यर्थ नहीं जाता।"

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