बस्तर में घटते नक्सलवाद की रोशनी में नई उम्मीदें: 20 साल से कैंप में रह रहे 200 रिफ्यूजी परिवारों की घर वापसी की आस: दंतेवाड़ा, छत्तीसगढ़ ...
बस्तर में घटते नक्सलवाद की रोशनी में नई उम्मीदें: 20 साल से कैंप में रह रहे 200 रिफ्यूजी परिवारों की घर वापसी की आस:
दंतेवाड़ा, छत्तीसगढ़ :बस्तर की वादियों में एक नई सुबह की किरण फूटी है। वर्षों से बंदूक की छाया में जी रहे आदिवासी अब उम्मीद की रौशनी में सांस लेना चाह रहे हैं। नक्सलवाद के घटते प्रभाव के बीच बीते दो दशकों से शरणार्थी शिविरों में रह रहे लगभग 200 परिवारों को अब अपने घर लौटने की आस बंधी है।
ये वही लोग हैं, जो 2005 में नक्सल हिंसा के चरम पर पहुँचने के बाद अपने गांवों को छोड़कर सुरक्षा की तलाश में कैंपों में आ बसे थे। तब बच्चे छोटे थे, आज वे जवान हो चुके हैं — और जिनके कांधों पर कभी परिवार की जिम्मेदारी थी, आज वे बूढ़ी आंखों से अपने गांव की मिट्टी देखने की तमन्ना लिए बैठे हैं।
"हमारे गांव में अब शांति है, सरकार ने सड़क, स्कूल और सुरक्षा दी है। अब हम लौटना चाहते हैं," यह कहते हुए 65 वर्षीय मल्लू काका की आंखों में आंसू भी हैं और एक चमक भी।
बदलाव की बयार:
राज्य सरकार और सुरक्षा बलों के प्रयासों से अब बस्तर के कई हिस्सों में हालात सामान्य हो रहे हैं। स्कूलों की घंटियां फिर से बजने लगी हैं, और हाट-बाज़ारों में फिर से रौनक लौट रही है। प्रशासन ने इन रिफ्यूजी परिवारों के पुनर्वास के लिए योजना बनाई है, जिसमें घर बनाने, खेती के लिए जमीन, और जीवन यापन की सुविधाएं दी जाएंगी।
शिविर नहीं, अब घर चाहिए:
कांकेर, सुकमा और नारायणपुर के कैंपों में रह रहे लोगों का अब एक ही सपना है — "फिर से अपने खेत जोतेंगे, अपने पेड़ के नीचे बैठेंगे, और त्योहार अपने गांव में मनाएंगे।"
सच्ची आज़ादी:
इन परिवारों के लिए नक्सलवाद का कमजोर होना किसी आज़ादी से कम नहीं। यह केवल हिंसा की समाप्ति नहीं, बल्कि पहचान, आत्मसम्मान और जड़ों से जुड़ने का अवसर है।
लेखक की टिप्पणी:
यह समाचार केवल एक राहत की कहानी नहीं है, यह साहस, संघर्ष और इंतजार की भी कहानी है। ये लोग वर्षों तक अपनी मिट्टी की गंध को तरसते रहे, अब जब हवा में शांति घुल रही है, तो उन्हें बस एक मौका चाहिए — घर लौटने का।
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