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स्वराज्य की चेतना : वीर सावरकर की अग्निगाथा

[ शुभांशु झा | 28/05/2025 ] स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर – एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही देशभक्ति, आत्मबलिदान और अकुण्ठ राष्ट्रप्रेम की ...

[शुभांशु झा | 28/05/2025]

स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर – एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही देशभक्ति, आत्मबलिदान और अकुण्ठ राष्ट्रप्रेम की ज्वाला मन में धधक उठती है। वे न केवल एक क्रांतिकारी थे, बल्कि इतिहासकार, कवि, समाजसुधारक और सबसे बढ़कर, एक विचारक भी थे। आज जब भारत विश्व मंच पर अग्रसर हो रहा है, तब युवाओं के लिए सावरकर का जीवन एक अमर आदर्श बनकर खड़ा है।

क्रांति की ज्वाला का प्रारंभ

28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भगूर गांव में जन्मे सावरकर ने बाल्यावस्था से ही स्वराज्य का सपना देखा। 1905 में “अभिनव भारत” की स्थापना कर उन्होंने संगठित क्रांतिकारी आंदोलन को नई दिशा दी। लंदन प्रवास के दौरान उन्होंने 1857 की क्रांति पर आधारित अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "The First War of Indian Independence" लिखी, जिसमें ब्रिटिश औपनिवेशिक दमन का असली चेहरा सामने रखा।

काला पानी की यातना और अडिग संकल्प

1909 में ब्रिटिश अधिकारी कर्ज़न वायली की हत्या के आरोप में सावरकर को गिरफ़्तार किया गया। उन्हें दो बार 50-50 वर्षों की कालापानी की सज़ा सुनाई गई – यह इतिहास में दुर्लभ है। अंडमान की सेल्युलर जेल में उन पर जो अत्याचार हुए, वे मानवता के लिए एक प्रश्नचिन्ह हैं। बावजूद इसके, उन्होंने जेल की दीवारों पर कीलों से कविता लिखी और अन्य कैदियों में देशभक्ति की भावना भरते रहे।

समाज सुधारक और राष्ट्रवादी विचारक

सावरकर ने न केवल राजनैतिक स्वतंत्रता की बात की, बल्कि छुआछूत, जातिवाद और अंधविश्वास के विरुद्ध भी सशक्त अभियान चलाया। उनका मानना था कि जब तक समाज संगठित और समान नहीं होगा, तब तक राष्ट्र पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं हो सकता। उन्होंने "हिंदुत्व" की धारणा को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में प्रस्तुत किया – जिसमें सभी भारतीयों को एक साझा सांस्कृतिक धरोहर से जोड़ा गया।

युवाओं के लिए संदेश

आज के युवाओं को वीर सावरकर से यह सीखना चाहिए कि देश के लिए सोचने और संघर्ष करने की कोई उम्र नहीं होती। उन्होंने साबित किया कि कलम और तलवार – दोनों की धार से क्रांति लाई जा सकती है। उनका जीवन हमें बताता है कि राष्ट्र के लिए स्वाभिमान, अनुशासन और वैचारिक स्पष्टता कितनी आवश्यक है।

विवादों से परे, राष्ट्रधर्म सर्वोपरि

सावरकर पर अक्सर राजनैतिक विवाद हुए, परंतु उनके राष्ट्रधर्म पर कभी कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा। 14 वर्षों की कठोर सजा, जीवन भर सामाजिक बहिष्कार और अंततः एकाकी मृत्यु – ये सभी उनके समर्पण का प्रमाण हैं। उन्होने 1966 में पूर्ण आस्था से ‘आत्मार्पण’ करते हुए महासमाधि ली, यह उनकी विचारधारा की पराकाष्ठा थी।

वीर सावरकर का जीवन कोई मिथक नहीं, बल्कि एक अमर प्रेरणा है। वे हमें सिखाते हैं कि "स्वतंत्रता केवल अधिकार नहीं, कर्तव्य भी है"। जब हम राष्ट्र के लिए कुछ करने का संकल्प लेते हैं, तभी सच्चे अर्थों में स्वतंत्र भारत को पूर्णता मिलती है।

आज का युवा यदि सावरकर के जीवन से प्रेरणा ले, तो न केवल वह अपने जीवन को अर्थ देगा, बल्कि भारत को विश्वगुरु बनाने की दिशा में सशक्त कदम भी बढ़ाएगा।

जय हिंद! वंदे मातरम्!

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