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जब बस्तर गूंज उठा शहनाइयों से: डॉ. शर्मा ने कराया आदिवासी युवतियों का सामूहिक विवाह, बाबू साहबों को बनाया दूल्हा

  जब बस्तर गूंज उठा शहनाइयों से: डॉ. शर्मा ने कराया आदिवासी युवतियों का सामूहिक विवाह, बाबू साहबों को बनाया दूल्हा बस्तर (छत्तीसगढ़): भारत क...

 

जब बस्तर गूंज उठा शहनाइयों से: डॉ. शर्मा ने कराया आदिवासी युवतियों का सामूहिक विवाह, बाबू साहबों को बनाया दूल्हा

बस्तर (छत्तीसगढ़):भारत की आज़ादी के बाद जब देश में रियासतों का विलीनीकरण हो रहा था, तब बस्तर की धरती भी एक ऐतिहासिक बदलाव की साक्षी बन रही थी। 1948 में बस्तर और कांकेर की रियासतें और आसपास की जमींदारियां मिलाकर एक नया बस्तर ज़िला अस्तित्व में आया। लेकिन इस प्रशासनिक बदलाव से कहीं अधिक गहरी और मानवीय कहानी उस समय लिखी जा रही थी—एक कहानी, जो न्याय, समानता और प्रेम की मिसाल बन गई।

स्वतंत्रता के बाद, जब बस्तर को प्रशासनिक रूप से एकीकृत किया गया, तब वहाँ के कई बाबू साहब—प्रशासनिक अधिकारियों और प्रभावशाली लोगों—ने आदिवासी समाज की भोली-भाली युवतियों का शोषण किया। लेकिन इस अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाला भी कोई था। वह थे डॉ. शर्मा—एक संवेदनशील, साहसी और न्यायप्रिय अधिकारी, जिनके दिल में आदिवासी समाज के लिए गहरी करुणा थी।

डॉ. शर्मा ने यह तय किया कि इन युवतियों को उनका हक़ दिलाया जाएगा। उन्होंने एक ऐतिहासिक कदम उठाया—एक सामूहिक विवाह का आयोजन किया, जिसमें उन्हीं बाबू साहबों से इन युवतियों की शादियाँ करवाई गईं। यह आयोजन सिर्फ़ एक विवाह नहीं था, बल्कि एक सामाजिक क्रांति थी।

बस्तर की धरती पर शहनाइयाँ बजीं, फूलों की वर्षा हुई और न्याय का उत्सव मनाया गया।

विवाह समारोह में नाचते-गाते आदिवासी जन, रंग-बिरंगे परिधानों में सजी दुल्हनें, और अपने अपराधों का पश्चाताप करते बाबू साहब—यह दृश्य जैसे इतिहास के पन्नों पर अमिट अक्षरों में दर्ज हो गया।

डॉ. शर्मा का यह कदम केवल उस समय के अन्याय का समाधान नहीं था, बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों के लिए यह संदेश भी था कि इंसानियत सबसे ऊपर है, और हर व्यक्ति को गरिमा से जीने का अधिकार है।

आज भी बस्तर के बुजुर्ग जब यह कहानी सुनाते हैं, तो आंखों में गर्व और दिल में डॉ. शर्मा के प्रति कृतज्ञता भर जाती है। उन्होंने सिर्फ विवाह नहीं कराए, उन्होंने समाज को आइना दिखाया और मानवता की नई परिभाषा गढ़ी।




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