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जांजगीर-चांपा में ‘संविधान बचाओ रैली’: कांग्रेस की रणनीति के 5 बड़े मायने:

जांजगीर-चांपा में ‘संविधान बचाओ रैली’: कांग्रेस की रणनीति के 5 बड़े मायने: जांजगीर-चांपा, छत्तीसगढ़ : छत्तीसगढ़ कांग्रेस द्वारा आयोजित ‘संवि...


जांजगीर-चांपा में ‘संविधान बचाओ रैली’: कांग्रेस की रणनीति के 5 बड़े मायने:

जांजगीर-चांपा, छत्तीसगढ़ : छत्तीसगढ़ कांग्रेस द्वारा आयोजित ‘संविधान बचाओ रैली’ अब जांजगीर-चांपा में होने जा रही है, जबकि पहले से तय रैलियाँ रायपुर, दुर्ग और बिलासपुर में रद्द कर दी गई थीं। इस नई रणनीति के पीछे कांग्रेस की सधी हुई राजनीतिक सोच और आगामी चुनावों को लेकर व्यापक संदेश देने का प्रयास देखा जा रहा है।

रैली में प्रदेश प्रभारी सचिन पायलट, पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, टीएस सिंहदेव सहित कई वरिष्ठ नेता शामिल होंगे। भीड़ जुटाने के साथ-साथ यह कार्यक्रम दलित-पिछड़ा वर्ग और ग्रामीण मतदाताओं को साधने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।


कांग्रेस की रणनीति के 5 बड़े मायने:

1. ग्रामीण बेल्ट पर फोकस:

रायपुर, दुर्ग और बिलासपुर जैसे शहरी इलाकों की बजाय जांजगीर-चांपा जैसे ग्रामीण जिले को चुना जाना, कांग्रेस की ग्रामीण मतदाताओं को जागरूक करने की रणनीति को दर्शाता है।


2. दलित और पिछड़ा वर्ग को साधना:

जांजगीर-चांपा अनुसूचित जाति बहुल क्षेत्र है। ‘संविधान बचाओ’ जैसे मुद्दे से डॉ. अंबेडकर की विरासत और दलित चेतना को सीधे जोड़ा जा रहा है, जिससे कांग्रेस को सामाजिक न्याय की राजनीति को मजबूत करने का अवसर मिलेगा।


3. भाजपा के गढ़ में सेंध:

यह इलाका बीते चुनावों में भाजपा का मजबूत गढ़ रहा है। कांग्रेस यहां रैली कर भाजपा के वर्चस्व को चुनौती देना चाहती है और स्थानीय मतदाताओं में नया विश्वास पैदा करना चाहती है।


4. प्रभारी की मौजूदगी का संदेश:

सचिन पायलट जैसे राष्ट्रीय नेता की मौजूदगी से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह बढ़ेगा और यह पार्टी की एकजुटता का प्रतीक भी बनेगा।


5. मीडिया नैरेटिव और जनमानस पर असर:

तीन प्रमुख शहरों की रैली रद्द होने के बाद यदि यह रैली सफल होती है, तो कांग्रेस मीडिया में एक सकारात्मक नैरेटिव गढ़ सकती है कि पार्टी जमीनी स्तर पर जुड़ाव को तरजीह दे रही है, न कि सिर्फ शहरी दिखावे को


निष्कर्ष:

जांजगीर-चांपा में रैली आयोजित कर कांग्रेस ने एक गहरी राजनीतिक चाल चली है, जो न सिर्फ मतदाताओं को संदेश देने के लिए है, बल्कि भाजपा के सामने एक जनसंपर्क चुनौती भी है। यह देखा जाना बाकी है कि यह दांव आगामी चुनावों में कितना कारगर सिद्ध होता है।


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