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IMF की डील से नाराज़ पूर्व अमेरिकी अधिकारी बोले – ट्रंप को यह धोखाधड़ी बर्दाश्त नहीं करनी चाहिए"

IMF की डील से नाराज़ पूर्व अमेरिकी अधिकारी बोले – ट्रंप को यह धोखाधड़ी बर्दाश्त नहीं करनी चाहिए : नई दिल्ली :  अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF...


IMF की डील से नाराज़ पूर्व अमेरिकी अधिकारी बोले – ट्रंप को यह धोखाधड़ी बर्दाश्त नहीं करनी चाहिए :

नई दिल्ली : अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) द्वारा पाकिस्तान को 1 अरब डॉलर का ऋण देने के फैसले ने भू-राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है। भारत की कड़ी प्रतिक्रिया के बाद अब अमेरिका के पूर्व रक्षा सलाहकार माइकल रुबिन ने भी इस कदम की खुलकर निंदा की है। उनका कहना है कि IMF का यह निर्णय न केवल ट्रंप प्रशासन के आदेशों की अवहेलना है, बल्कि इससे पाकिस्तान के बहाने चीन को अप्रत्यक्ष आर्थिक राहत भी मिल रही है।

"यह सिर्फ पाकिस्तान की मदद नहीं है, यह ट्रंप की नाक में दम करने जैसा है,"

रुबिन ने अमेरिकी न्यूज मैगज़ीन को दिए साक्षात्कार में कहा। उन्होंने चेताया कि यह निर्णय भारत-पाक तनाव की पृष्ठभूमि में गंभीर रणनीतिक भूल साबित हो सकता है।


ट्रंप का आदेश और IMF की अवहेलना:

माइकल रुबिन ने याद दिलाया कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कार्यकाल के दौरान सभी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की समीक्षा का आदेश दिया था, जिन्हें अमेरिका आर्थिक सहायता देता है। IMF, जिसमें अमेरिका की हिस्सेदारी लगभग 150 अरब डॉलर है, ने इस आदेश की भावना को दरकिनार करते हुए पाकिस्तान को ऋण दे दिया।


चीन की हो रही है मदद?

रुबिन का मानना है कि पाकिस्तान आज चीन पर अत्यधिक आर्थिक निर्भरता के कारण नीतिगत रूप से असंतुलित है। ग्वादर बंदरगाह और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) जैसी परियोजनाएं पाकिस्तान को करीब 40 अरब डॉलर के घाटे में डाल चुकी हैं। ऐसे में IMF से मिला नया ऋण इन परियोजनाओं की असफलता का बोझ कम करने में चीन की मदद करेगा।


"ट्रंप ने गंवाया मौका:

रुबिन का यह भी तर्क है कि अगर ट्रंप IMF जैसी संस्थाओं की फंडिंग की समीक्षा के निर्णय पर अडिग रहते, तो अमेरिका 100 अरब डॉलर से ज्यादा की बचत कर सकता था — और आलोचकों को करारा जवाब दे सकता था जो उन्हें केवल 'भ्रम फैलाने वाला नेता' कहते हैं।


निष्कर्ष:

IMF का पाकिस्तान को ऋण देने का फैसला केवल एक आर्थिक निर्णय नहीं, बल्कि एक रणनीतिक संकेत है — जो अंतरराष्ट्रीय संतुलन को प्रभावित कर सकता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या अमेरिका को अब अपनी अंतरराष्ट्रीय फंडिंग नीति पर दोबारा विचार करने की जरूरत है?




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