यह फ़िल्म “माटी” के माध्यम से हमारा उद्देश्य केवल एक कहानी कहना नहीं, बल्कि एक संदेश देना है — यह कि हिंसा कभी किसी समस्या का समाधान नहीं होती। हम अपनी नई पीढ़ी — जो आज ज्ञान, तकनीक और बदलाव की दिशा में बढ़ रही है — को यह बताना चाहते हैं कि संवाद और संवेदना ही विकास का असली मार्ग हैं।

फ़िल्म एक अत्यंत सशक्त माध्यम है, जिसके ज़रिए समाज में हर दिल तक बात पहुँचाई जा सकती है। इतिहास गवाह है कि सिनेमा ने सिर्फ मनोरंजन नहीं किया, बल्कि विचार और चेतना का निर्माण भी किया है।

उदाहरण के तौर पर देखें तो अमेरिका, जिसे आज विश्व की महाशक्ति के रूप में जाना जाता है, उसकी फ़िल्म इंडस्ट्री हॉलीवुड हमेशा अपने देश की सोच और आत्मविश्वास को प्रदर्शित करती रही है। जब भी कोई हॉलीवुड फ़िल्म पृथ्वी पर संकट दिखाती है — अंत में दुनिया को बचाने का काम अमेरिका ही करता है — यह केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि राष्ट्रीय विचारधारा का विस्तार भी है।

भारत में भी सिनेमा ने समाज और पर्यटन दोनों को दिशा दी है। 1960 से 1990 के दशक तक हिंदी फ़िल्मों ने कश्मीर की वादियों को एक पर्यटक पहचान दी — पर जब आतंकवाद आया तो लोकेशन में बदलाव हुआ और विदेशी लोकेशनों से भी प्रेरणा मिली।

फ़िल्म माटी के निर्माता संपत झा की यह पहल — नक्सलवाद की पीड़ा झेल चुके बस्तर में फ़िल्म निर्माण — एक साहसिक और ऐतिहासिक कदम है। जहाँ वर्षों से बंदूक़ों की आवाज़ गूँजती रही, वहाँ अब कैमरा और क्रू की मौजूदगी इस क्षेत्र के लिए आशा एवं नए अवसर का संकेत है।

संपत झा ने बस्तर को न केवल कहानी की पृष्ठभूमि बनाया है, बल्कि एक जीवंत प्राकृतिक फिल्म स्टूडियो के रूप में दुनिया के सामने पेश किया है — जहाँ जंगल, झरने, आदिवासी संस्कृति और लोकनृत्य मिलकर एक दुर्लभ दृश्यात्मक अनुभव देते हैं।

इस प्रयास से फ़िल्म निर्माताओं को नई लोकेशन, नई संस्कृति और नई कहानियों का संसार मिलेगा — और बस्तर का आर्थिक व सांस्कृतिक विकास भी स्वाभाविक रूप से तेज़ होगा।

आज आवश्यकता है कि देश और दुनिया यह देखे कि बस्तर केवल संघर्ष का प्रतीक नहीं, बल्कि सृजन और संभावनाओं की धरती है। “माटी” इसी सोच को परदे पर उतारने का प्रयास है — ताकि बस्तर की आत्मा, उसकी पीड़ा और उसकी सुंदरता हर दर्शक के दिल में बस जाए।