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"टेंडर का खेल": 295 करोड़ में तैयार उपक्रम को नजरअंदाज कर C-DAC को 465 करोड़ में सौंपने की तैयारी!

  "टेंडर का खेल": 295 करोड़ में तैयार उपक्रम को नजरअंदाज कर C-DAC को 465 करोड़ में सौंपने की तैयारी!: रायपुर :  छत्तीसगढ़ सरकार के...

 "टेंडर का खेल": 295 करोड़ में तैयार उपक्रम को नजरअंदाज कर C-DAC को 465 करोड़ में सौंपने की तैयारी!:

रायपुर : छत्तीसगढ़ सरकार के गृह विभाग में एक बार फिर "टेंडर का खेल" सामने आया है। अत्याधुनिक डायल-112 सेवा के संचालन का काम अब 465 करोड़ रुपये में सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस्ड कंप्यूटिंग (C-DAC) को देने की तैयारी चल रही है। हैरानी की बात यह है कि एक सरकारी उपक्रम इस काम को मात्र 295 करोड़ रुपये में करने को तैयार था, बावजूद इसके उससे कम अनुभवी और कहीं अधिक लागत वाले प्रस्ताव को तरजीह दी जा रही है।

साफ्टवेयर कंपनी को 'ड्राइविंग सीट' पर बैठाने की तैयारी!

डायल-112 जैसी इमरजेंसी सेवा जिसमें तेजी, दक्षता और फील्ड अनुभव बेहद जरूरी होता है, उसे एक ऐसे संस्थान को सौंपा जा रहा है जिसका गाड़ियों के संचालन और फील्ड रिस्पॉन्स का कोई अनुभव नहीं है। C-DAC एक प्रतिष्ठित साफ्टवेयर विकास संस्थान है, लेकिन उसे इस पैमाने के इमरजेंसी रिस्पॉन्स सिस्टम के संचालन का अनुभव नहीं है।


टेंडर निकला था, फिर क्यों बदली राह?

मार्च 2024 में डायल-112 सेवा के लिए टेंडर जारी किया गया था, जिसे अगस्त में खोला गया। सूत्रों के मुताबिक, टेंडर प्रक्रिया में एक सक्षम सरकारी उपक्रम ने कम लागत में सेवा देने की पेशकश की थी। इसके बावजूद, गृह विभाग ने उस प्रस्ताव को दरकिनार कर नामांकन आधार पर C-DAC को अनुबंध देने की तैयारी कर ली है। वित्त विभाग को इस संबंध में फाइल भेज दी गई है।


वित्तीय अनुशासन पर सवाल:

सरकार की मंशा पर सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि यह सौदा करीब 170 करोड़ रुपये अधिक में किया जा रहा है। सवाल उठ रहा है कि जब कम लागत में बेहतर विकल्प उपलब्ध था, तो इतनी बड़ी राशि खर्च करने की जरूरत क्यों महसूस की गई?


विपक्ष का हमला, विशेषज्ञों की चिंता:

विपक्षी दलों ने इसे "सरकारी धन की बर्बादी" बताया है और इसकी जांच की मांग की है। विशेषज्ञों का मानना है कि इमरजेंसी सेवाओं में फील्ड अनुभव और संचालन की दक्षता सर्वोपरि होती है, जो साफ्टवेयर कंपनी से नहीं मिल सकती।


निष्कर्ष:

सवाल यह नहीं कि C-DAC सक्षम है या नहीं, सवाल यह है कि जब कम लागत में बेहतर विकल्प उपलब्ध था, तो नामांकन के जरिये अधिक खर्च क्यों किया जा रहा है? क्या यह पारदर्शिता और प्रतिस्पर्धा के सिद्धांतों के खिलाफ नहीं है?

> सरकार के इस फैसले ने एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर दिया है — क्या टेंडर प्रक्रिया अब महज़ औपचारिकता बनकर रह गई है?



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