“हरेली तिहार: छत्तीसगढ़ के कृषक जीवन का उत्सव, जातीय सहभागिता, लोकपरंपरा और हरियाली की संस्कृति का मानववैज्ञानिक अध्...
“हरेली तिहार: छत्तीसगढ़ के कृषक जीवन का उत्सव, जातीय सहभागिता, लोकपरंपरा और हरियाली की संस्कृति का मानववैज्ञानिक अध्ययन”
— डॉ रूपेन्द्र कवि
भूमिका
छत्तीसगढ़ की मिट्टी, यहाँ की भाषा, यहाँ का लोकजीवन – सब कुछ प्रकृति और श्रम से गहराई से जुड़ा हुआ है। इन्हीं जीवन के उत्सवों में से एक है हरेली तिहार। यह पर्व श्रावण मास की अमावस्या को मनाया जाता है, जो प्रकृति में हरियाली के प्रवेश और कृषक जीवन के आरंभ का संकेत है।
यह आलेख मानवविज्ञान की दृष्टि से हरेली तिहार का विश्लेषण करता है, जहाँ त्योहार को केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना, जातीय सहयोग, और परंपरागत ज्ञान तंत्र के रूप में समझा जाता है।
हरेली: प्रकृति और परिश्रम का लोक उत्सव
हरेली का शाब्दिक अर्थ है "हरियाली" – और इस दिन गांव के किसान अपने खेतों, बैलों और औजारों की पूजा करते हैं। हल, फावड़ा, खुरपी जैसे उपकरणों को साफ कर सजाया जाता है और नीम की टहनियाँ घरों के द्वार पर लगाई जाती हैं।
यह कर्म केवल पूजा नहीं, बल्कि परिश्रम, भूमि और जीवन के साधनों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने की सांस्कृतिक प्रक्रिया है।
लोकगीतों में हरेली की छाया
छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में हरेली की आत्मा बसी है। ददरिया और सावनाही जैसे गीत खेतों में, झूलों पर और मेलों में गाए जाते हैं।
🎵 "का तैं मोला मोहनी दार देहे गोंदा फुल,”
“पता दे जा रे गाड़ीवाला…”
इसमें खेत, प्रेम और प्रकृति का मधुर सम्मिलन है। गीत न केवल मनोरंजन का साधन हैं, बल्कि सांस्कृतिक ज्ञान और भावनात्मक अनुभव के संप्रेषण का माध्यम भी हैं।
खेल, गीत और समुदाय
हरेली तिहार में गेड़ी दौड़, राउत नाचा, रस्साकशी, गिल्ली डंडा जैसे पारंपरिक खेल आयोजित होते हैं। ये खेल ना सिर्फ उत्सव की रौनक हैं, बल्कि सामाजिक सामंजस्य, पीढ़ियों के संवाद और लोक-स्मृति के संरक्षक हैं।
राजकीय संरक्षण और गोधन संस्कृति
छत्तीसगढ़ सरकार ने गोधन न्याय योजना के तहत हरेली को जैविक कृषि आंदोलन से जोड़ा है। अब गाय के गोबर और मूत्र को खरीदा जा रहा है, जिससे किसान जैविक खाद बना रहे हैं।
यह परंपरा का आधुनिक पुनर्पाठ है – जहाँ संस्कृति, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण एक त्रिकोण बनाते हैं।
जातीय सहभागिता और परंपरा
हरेली केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि जातीय सामाजिक सहभागिता का प्रतिबिंब है, जहाँ प्रत्येक समुदाय की अपनी विशिष्ट भूमिका होती है:
जाति/समूह | परंपरागत भूमिका |
---|---|
गोंड | खेत व देवी पूजा (कुटकी दाई), हरियाली आराधना |
बैगा | पारंपरिक वैद्य, जड़ी-बूटी ज्ञान का हस्तांतरण |
राउत | गौ-पूजन, 'राउत नाचा', पशुपालन परंपरा |
घासी | ढोल-नगाड़ा वादन, गीत-संगीत में योगदान |
बारी | पूजा व भोज में प्रयुक्त पत्तल बनाने की परंपरा |
इन जातीय भूमिकाओं के सहारे ही पूरा सामाजिक ताना-बाना पर्व को जीवंत बनाता है। यह सामाजिक श्रेणीकरण विभाजन नहीं, बल्कि सहयोग और सहभागिता का ढाँचा है।
बस्तर का 'अमूस': हरेली का वनवासी संस्करण
बस्तर क्षेत्र में ‘अमूस’ नामक पर्व हरेली का ही एक सांस्कृतिक समरूप है। यह पर्व गोंड, मुरिया, भतरा और धुरवा जनजातियों द्वारा हरियाली के स्वागत में मनाया जाता है।
🌿 विशेषताएँ:
वृक्षों (विशेषकर सागौन, पीपल) की पूजा
बीजों को देवी के सामने अर्पित कर बीज रक्षा अनुष्ठान
अमूस गीत गाकर खेतों में समृद्धि की कामना
🎶 "रे रेलो रे रेलो रोय”
यह गीत बीज, धरती और जंगल की पवित्रता को रेखांकित करता है। अमूस में स्त्रियों की भूमिका प्रमुख होती है, जो कृषि संस्कृति में स्त्री-केन्द्रित लोकविश्वास को दर्शाता है।
मानववैज्ञानिक निष्कर्ष
हरेली और अमूस दोनों पर्व संस्कृति में प्रकृति के समावेश के जीवंत प्रतीक हैं। मानवविज्ञान की दृष्टि से यह पर्व:
- सामाजिक संरचना का उत्सव है,
- लोक ज्ञान के हस्तांतरण का माध्यम है,
- और अर्थव्यवस्था, संस्कृति व पर्यावरण के सहअस्तित्व का दर्शन है।
उपसंहार
हरेली तिहार केवल कृषक जीवन का पर्व नहीं, बल्कि वह जीवनशैली है जो प्रकृति, समुदाय, ज्ञान और परंपरा को एक साथ बुनती है। यह पर्व छत्तीसगढ़ की लोक-संस्कृति की वह विरासत है जिसे पीढ़ियाँ निभाती हैं – गीतों में, खेतों में, और त्योहारों की रौनक में।
हरेली तिहार को मानवविज्ञान की दृष्टि से देखना इसका सांस्कृतिक मर्म समझने की दिशा में एक गहरा कदम है – एक ऐसा कदम जो परंपरा को आज की चेतना से जोड़ता है।
— डॉ रूपेन्द्र कवि
(मानववैज्ञानिक, साहित्यकार, लोकचिंतक)
जगदलपुर (छत्तीसगढ़)
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